तो फिर क्यों बसा है उनमें कायरता का रोग?क्या करेगा ज़माना ऐसी अच्छाई का
जो फेर ले नज़र, देख कर चेहरा बुराई का।कब तक बैठोगे तुम, डाल कर हाथों पे हाथ
इसी ख़ामोशी ने तो किए हैं, बद से बद्तर हालात।
है आग तुम्हारे घर से अभी बहुत दूर
क्या इसलिए तुम्हें सर झुका कर जीना है मंजूर।
नफरत की आग घर देख कर नहीं जलाती
बस्तियों की बस्तियां हैं इसमें उजड़ जाती।
बहुत देख लिया खिड़कियों से तमाशा
अब तो दिखानी होगी हिम्मत बेतहाशा।
मैं तो अपनी आवाज़ उठाऊंगा
जो भी देनी पड़े कीमत वो चुकाऊंगा।
आज तो मैं हूँ कल तुम्हारी बारी आएगी
फिर ये ख़ूनी भीड़ तुमसे प्यास बुझाएगी।
जब मौत खड़ी होगी खोलकर अपनी बाहें
तब सुनसान गलियों में गूँज उठेंगी तुम्हारी आँहें।
तब तुम आवाज़ उठाओगे
चीखोगे और चिल्लाओगे।
पर कोई बचा है जो तुम्हें बचाने आएगा
बस अपनी बुज़दिली का पछतावा रह जाएगा।
(मृणाल श्रेष्ठ)